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History

भारत देश की स्वतन्त्रता

लंबे संघर्षो और बलिदानों के बाद 15 August 1947 को भारत आजादी मिली और इस आज़ादी की लड़ाई में उत्तराखंड के लोगों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया था और अनवरत संघर्ष किया था। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात देश के कई राज्यों का पुनर्गठन हुआ साथ ही कुछ नये राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों का गठन हुआ। उत्तरप्रदेश राज्य के पर्वतीय भूभाग (अब उत्तराखंड राज्य ) की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को मद्देनज़र रखते हूए 1950 से ही यहां के जनप्रतिनिधियों ने समय समय पर उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने जाने की मांग उठाई, पर उनकी मांग को केंद्रीय नेतृत्व ने ज्यादा महत्व नहीं दिया। वर्ष 1971 में टिहरी के तत्कालीन सांसद स्वर्गीय प्रतापसिंह नेगी जी ने अलग राज्य की पुरजोर पैरवी की थी तथा उनकी प्रेरणा से छात्र संगठनों ने धरने प्रर्दशन भी किये थे पर वह आंदोलन भी जनांदोलन का रूप नहीं ले सका। लेकिन अलग राज्य की अवधारणा कहीं न कहीं हमारे जनप्रतिनिधियों के दिल में बनी रही।

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स्व० इंद्रमणि बडोनी

फिर स्व० इंद्रमणि बडोनी जी 1967 से देवप्रयाग विधानसभा क्षेत्र से उत्तर प्रदेश की विधानसभा में गये। लखनऊ द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा तथा उनके द्वारा विधानसभा में पहाड़ के मुद्दों पर मैदानी क्षेत्रों के विधायकों द्वारा उपहास किये जाने के कारण उनके मन में अलग राज्य की अवधारणा प्रबल हो गई। इसी के चलते वे 1977 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े और कांग्रेस तथा जनता पार्टी के प्रत्याशियों को धूल चटाकर विजयी हुए। विजयी होने के उपरान्त पर्वतीय क्षेत्र के विकास एवम् पृथक राज्य के लिये लखनऊ विधानसभा में उनका संघर्ष जारी रहा।

उत्तराखंड क्रान्ति दल का गठन


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डा० डी०डी० पंत

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की घोर उपेक्षा के चलते गढ़वाल-कुमाऊं के तत्कालीन जन नेताओं ने दि0 24 व 25 जुलाई 1979 को “अनुपम होटल ” मसूरी में दो दिवसीय बैठक की और श्रद्धेय श्रीदेव सुमन जी के बलिदान दिवस को उपयुक्त मानकर 25 जुलाई 1979 को अलग क्षेत्रीय दल का गठन कर दिया। सम्यक विचार-विमर्श के उपरांत दल का नाम ” उत्तराखंड क्रान्ति दल “ रखा गया तथा कुमाऊँ विश्वविद्यालय के उप कुलपति स्व० डा० डी०डी० पंत को सर्वसम्मति से पार्टी का केंद्रीय अध्यक्ष चुना गया। इस अवसर पर डा० डी०डी० पंत के अतिरिक्त श्री दिवाकर भट्ट, श्री कृपालसिंह रावत “सरोज”, श्री द्वारिका प्रसाद उनियाल, श्री हुकमसिंह पंवार, श्री मदनमोहन नौटियाल, श्री नित्यानंदभट्ट, श्रीआर०के०पंत, स्व०श्री विनोद बड़थ्वाल, श्री विनोद चंदोला, श्री दौलतराम पोखरियाल, श्री खड्गसिंह बगडवाल, एडवोकेट ललित किशोर पांडे, सहित 53 लोग उपस्थित थे। सम्मेलन में यह राय बनी कि जब तक उत्तराखण्ड के लोग राजनीतिक संगठन के रूप एकजुट नहीं हो जाते, तब तक उत्तराखण्ड राज्य नहीं बन सकता।

उक्रांद का बढ़ता जनाधार


अगले ही दिन देहरादून में पार्टी की पत्रकार वार्ता आयोजित की गई तथा इस अवसर पर श्री बी० डी० रतूड़ी व श्री अब्बल सिंह बिष्ट ने अपने अन्य साथियों के साथ पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और केन्द्रीय अध्यक्ष डा० डी० डी० पंत ने श्री बी० डी० रतूड़ी को देहरादून महानगर का अध्यक्ष मनोनीत किया गया। देहरादून जैसे शहर में जहाँ देश के विभिन्न राज्यों के लोग रहते थे, उक्राँद की विचारधारा से जोड़ना तब बहुत दुष्कर कार्य था परंतु अपने मधुर स्वभाव व पार्टी के प्रति समर्पण की भावना से उन्होंने पार्टी के जनाधार को बढा़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में विॆभिन्न पदों पर रहते हुए पार्टी के केन्द्रीय अध्यक्ष के पद तक पहुँचे ।

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मा० इंद्रमणि बडोनी जो पहले से ही अलग राज्य की परिकल्पना कर चुके थे,ने भी 25 जुलाई 1980 को रिषिकेश में संपन्न वार्षिक महाधिवेशन में उत्तराखंड क्रान्तिदल की सदस्यता ग्रहण की उनके साथ ही श्री विपिन त्रिपाठी,श्री त्रिवेंद्र सिंह पंवार, स्व०श्री आनंद सिंह गुसाईं सहित सैकड़ों लोगों ने उत्तराखंड क्रान्तिदल की सदस्यता ग्रहण की।

स्व० बडोनी जी व डा०डी०डी०पंत जी के संरक्षण व मार्गदर्शन तथा श्री दिवाकर भट्ट,श्री विपिन त्रिपाठी,श्री त्रिवेंद्र पंवार,श्री मदनमोहन नौटियाल,श्री बी०डी०रतूडी,स्व०श्रीआनंदसिंह गुसाईं,श्री नित्यानंद भट्ट जैसे अनेक युवाओं के जोश,समर्पण एवं अथक प्रयासों के चलते पार्टी का जनाधार बढ़ता चला गया।

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स्व० श्री जसवंत सिंह बिष्ट

इसका परिणाम तब सामने आया जब रानीखेत विधानसभा से बहुत ही सरल, ईमानदार व संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी स्व० श्री जसवंत सिंह बिष्ट को रानीखेत विधानसभा सीट से उत्तराखंड क्रांति दल का पहला विधायक बनने का गौरव हासिल हुआ। कहते हैं जिस दिन श्री जसवंत सिंह बिष्ट जी घर से नामांकन के लिए अल्मोड़ा को चले उनकी जेब में मात्र छः रुपये थे और उनमें से भी चार रुपये रास्ते में किसी जरूरतमंद को दे दिए तथा शेष दो रुपये रास्ते में मंदिर में भेंट चढ़ा दिए। परंतु जैसे जैसे लोगों को पता चलता गया अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनकी मदद करते चले गये और अल्मोड़ा जाते-जाते उनके पास नामांकन के लिए आवश्यक धनराशि एकत्रित हो गयी थी।
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श्री काशी सिंह ऐरी

तत्पश्चात वर्ष 1983 में तेजतर्रार युवा तुर्क के नाम से जाने जाने वाले श्री काशीसिंह ऐरी एवम् डा० नारायण सिंह जंतवाल ने भी सैकड़ों समर्थकों के साथ उत्तराखंड क्रान्तिदल की सदस्यता ग्रहण की। उनकेे दल में शामिल होने पर दल और मजबूत हुआ पार्टी की विश्वसनीयता और जनाधार ने और विस्तार पाया। इसी वर्ष श्रीनगर गढ़वाल में पार्टी की छात्रसंघ का गठन किया गया जिसका नाम उत्तराखंड स्टूडेंट फैडरेशन (USF) रखा गया तथा युवा छात्र नेता श्री नारायण सिंह जंतवाल पहले यू एस एफ के अध्यक्ष चुने गये।

स्व० इन्द्रमणि बडोनी जी ,डा० डी०डी०पंत, श्री जसवंत सिंह बिष्ट, श्री काशीसिंह ऐरी, श्री विपिन त्रिपाठी, श्री दिवाकर भट्ट, श्री त्रिवेंद्र पंवार, श्री कृपाल सिंह सरोज, श्री मदनमोहन नौटियाल, श्री नित्यानंद भट्ट, श्री बी०डी० रतूड़ी आदि वरिष्ठ नेताओं के नेतृत्व में पर्वतीय क्षेत्रों में निरंतर भ्रमण किया जिनमें नारायण आश्रम( पिथौरागढ़) से रामा सिराईं (उत्तरकाशी) तथा तवाघाट से देहरादून की पैदल यात्रायें प्रमुख थी। इस विषय में यह विशेष उल्लेखनीय है कि पार्टी के पास अपना कोई कोष न होने के बावजूद सारी यात्राएं स्वस्फूर्त रूप से ईष्ट मित्रों के सहयोग व अतिथिदेवो भव की भावना से निर्विकार रूप से संपन्न हो जाया करती थी। इधर अलग उत्तराखंड राज्य की आवश्यकता तथा राज्य बनने के उपरांत राज्य की आय के स्रोत रोजगार व स्वरोजगार, राज्य की राजधानी आदि विषयों पर भी गहन चिंतन मनन ज़ारी था।

उत्तराखंड के लिए उत्तराखंड क्रांति दल ( उक्रांद ) का लगातार संघर्ष


इसी बीच केन्द्र द्वारा वन अधिनियम को सख्त करते हुए हमारे जल जंगल व जमीन के अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया। केन्द्र ने सभी राज्यों को अपने अपने क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत भाग आरक्षित वनक्षेत्र घोषित करने के आदेश कर दिये और तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने पर्वतीय क्षेत्र के सभी वनपंचायतों को भी आरक्षित वनक्षेत्र घोषित कर अपना 20 प्रतिशत का कोटा पूरा कर लिया।

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जिससे पर्वतीय क्षेत्र की अधिकांश परियोजनाएं व सड़क निर्माण के कार्य बाधित होने लगे। इसे दल ने काला कानून मानते हुए वन अधिनियम के विरुद्ध व अपने जल जंगल जमीन के हक हकूकों की लड़ाई प्रारंभ कर दी। जिसके तहत समस्त प्रदेश में अधूरी रुकी परियोजनाओं और मार्ग निर्माण में बाधक पेड़ों को काटने का निर्णय लिया गया । और हमारे सभी तत्कालीन नेताओं ने अपने अपने क्षेत्रों में ऐसे पेड़ स्थानीय जनता के सहयोग से काट डाले। हालांकि जितने पेड़ काटे गये उनसे दोगुने से अधिक नये पेड़ भी उक्रांद नेताओं द्वारा लगाए गये, यथापि सरकार द्वारा उक्रांद नेताओं के विरुद्ध दर्जनों मुकदमे दर्ज कर दिये गये।
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पार्टी ने समय-समय पर जन-सरोकारों को लेकर वन अधिनियम तथा पर्वतीय क्षेत्रों के साथ केन्द्र व उत्तर प्रदेश सरकार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार को लेकर बड़े-बड़े आंदोलन किए। इसी कड़ी में दि० 10 नवंबर 1986 को गढ़वाल कमिश्नरी पौड़ी तथा 9 मार्च 1987 को कुमाऊं कमिश्नरी नैनीताल में लाखों की संख्या में उत्तराखंड की जनता रैलियों में सम्मिलित हुई थी। दि० 23 अप्रैल 1987 को दिल्ली में आहुत रैली के दौरान श्री त्रिवेंद्र सिंह पंवार के नेतृत्व में संसद भवन में “आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो” के नारे के साथ पत्रबम फेंका गया। उन्हें पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर लिया गया। तदुपरांत पुनः 23 नवंबर 1987 को दिल्ली में ही एक विशाल रैली हेतु दिल्ली जाते हुए गाजियाबाद पुलिस से हुई नोक-झोंक के दौरान श्री त्रिवेंद्र सिंह पंवार हिंडन पुल से नदी में गिर गये जिस कारण उनका एक पैर टूट गया वे आज भी लंगड़ा कर चलते हैं।

पार्टी के क्रियाकलापों व संघर्ष के चलते जनता में पार्टी की स्वीकार्यता इतनी थी कि 1989 के लोक-सभा चुनावों में कांग्रेस-भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के समक्ष, जिनके पास धनबल,संगठन व चुनावी संसाधनों की भरमार थी, हमारे प्रत्याशी टिहरी से स्व० इन्द्रमणि बडोनी जी और अल्मोड़ा से श्री काशीसिंह ऐरी मात्र 8000 व 10000 के मामूली अंतर से हार गए।जिसका मुख्य कारण धनबल व संसाधन न होने के अतिरिक्त पार्टी का ब्लौक स्तर व बूथ स्तर पर संगठन नहीं होना था।पर एक साथ हुएं लोकसभा विधानसभा चुनावों में श्री काशीसिंह ऐरी डीडीहाट विधानसभा सीट तथा श्री जसवंत सिंह बिष्ट रानीखेत विधानसभा सीट से विजयी हुए।

वर्ष 1989 में जीत कर आये उक्राँद के इन दोनों विधायकों द्वारा उत्तराखंड क्षेत्र से जुडे़ विकास के मुद्दों, सड़क -स्वास्थ्य एवं शिक्षा, जल-जंगल-जमीन, पर्वतीय क्षेत्रों से हो रहे पलायन को रोकने हेतु ठोस रणनीति बनाने व तत्कालीन पर्वतीय 8 जिलों के साथ हरिद्वार का कुंभ क्षेत्र को मिलाकर ( केदार खंड व मानस खंड ) ” उत्तराखंड” नाम से अलग राज्य की मांग समय समय पर उत्तरप्रदेश की विधानसभा के प्रत्येक सत्र में की जाती रही परंतु उत्तरप्रदेश व केन्द्र सरकार की पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा, यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व अपार सौंदर्य से परिपूर्ण यहाँ के रमणीक पर्यटक स्थलों को अपनी ऐशगाह बनाये रखने की नीति के चलते कभी भी हमारी इस माँग को गंभीरता से नहीं लिया । इधर स्व0 बडोनी जी के नेतृत्व में डा0 डी डी पंत, मा0 काशीसिंह ऐरी, स्व0 जसवंतसिंह बिष्ट, स्व0 विपिन त्रिपाठी, श्री दिवाकर भट्ट, श्री मदनमोहन नौटियाल, श्री त्रिवेन्द्र सिंह पंवार, श्री बी डी रतूडी़, श्री पूरणसिंह डंगवाल, श्री प्रकाश पाँडे, श्री पुष्करपाल, श्री प्रयाग शर्मा, श्री ब्रह्मानंद डालाकोटी, श्री सुरेंद्र कुकरेती, डा0 नारायण सिंह जंतवाल, श्री रणजीत विश्वकर्मा, श्री हरिदत्त बहुगुणा, स्व0 प्रतापसिंह बिष्ट, श्री मंत्री प्रसाद नैथानी, स्व0 आनन्दसिंह गुसाईं , स्व0 श्री नन्दनसिंह रावत, स्व0 श्री यतेन्द्र रुडोला, श्री खड़गसिंह बगड़वाल, श्री अवतारसिंह राणा, श्री गिरीश साह, श्री दौलतराम पोखरियाल, श्री सियाराम कुड़ियाल, श्री डी एन टोडरिया सहित दल के कई अन्य नेतागण पृथक राज्य के प्रति धारचूला से आराकोट तक सभी आठ जनपदों में जनजागरण अभियान चलाकर जनता को लामबंद करते चले गये,साथ ही उत्तराखंड राज्य की भौगोलिक रूपरेखा,सीमाओं का निर्धारण, आय के संसाधन,विकास की रूपरेखा, राज्य के युवाओं को राज्य के अंदर ही रोजगार व स्वरोजगार के संसाधन जुटाने के उपायों पर भी मनन मंथन कर विचारों का संकलन भी करते चले गये।

सभी पहलुओं पर विस्तृत विचार विमर्श के उपरांत सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि प्रस्तावित राज्य की राजधानी हेतु गढ़वाल- कुमाऊँ के मध्य एवम् राज्य मे सम्मिलित होने वाले सभी जिलों की राजधानियों से लगभग समान दूरी पर स्थित गैरसैंण को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया जिसने न केवल गढ़वाल व कुमाऊँ के बीच की भौतिक दूरी को समाप्त किया वरन् वर्षों से चली आ रहे परोक्ष व कथित भेदभाव को भी हमेशा के लिये दूर कर दिया । यह इस मायने भी महत्वपूर्ण है चूँकि अलग राज्य के विरोधी व राष्ट्रीय दलों के नेता जनता में हमेशा गढ़वाल – कुमाऊँ के बीच विवाद पैदा करने की नीयत से कहते थे कि अलग राज्य बनने पर राजधानी पर उक्राँद में आम सहमति नहीं बन पायेगी। जो राज्यविरोधी ताकतों के मुँह पर करारा तमाचा था।

( इस बात का प्रमाण यह है कि भाजपा व काँग्रेस आज भी राजधानी के स्थान व नाम को विवादित बनाये हुए हैं । भाजपा ने सत्ता में आते ही सबसे पहले राज्य का नाम बदल कर “उत्तराँचल ” रखकर व पूर्व से ही तय राजधानी ” चंद्रनगर -गैरसैंण” को विवादित बनाने के लिए दीक्षित आयोग का गठन कर जनमानस का घोर अपमान किया,तथा काँग्रेस ने भी कमेवेश भाजपा की ही तरह पहाड़ मैदान की राजनीति अपनाई तथा जनता को पहाड़ मैदान में बांटे रखा । )

राजधानी का नामकरण भी उत्तराखंड के गौरव व पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम पर ” चंद्रनगर – गैरसैंण” तय किया गया ।

अंततोगत्वा समस्त पर्वतवासियों की राय, उत्तराखंड के वैग्यानिको, भूगर्भवेत्ताओं, जल विद्युत, सड़क निर्माण, वानिकी,उद्यान, पर्यटन एवम् अन्य विषयों में अनुभव रखने वाले विशेषग्यों की राय के उपरांत स्व0 इन्द्रमणि बडोनी जी व स्व0 डा0 डी डी पंत जी के संरक्षण,मा0 काशीसिंह ऐरी की अध्यक्षता में स्व0 विपिन त्रिपाठी द्वारा तैयार ” उत्तराखंड राज्य ” का ब्ल्यू-प्रिंट वर्ष 1992 की 14-15 जनवरी को माघ मेला बागेश्वर में लाखों लोगों की उपस्थिति में ” उत्तरायणी ” के अवसर पर जनता के समक्ष रखा गया जिसे समूचे उत्तराखंड से पहुँचे जन नेताओं एवं उपस्थित जनसमुदाय ने बड़े हर्षोल्लास के साथ करतल ध्वनि एवं “जय उत्तराखंड” के जयघोष के साथ अनुमोदित किया गया ।

जहाँ एक ओर बडोनी जी के नेतृत्व में शांतिपूर्ण पृथकराज्य आंदोलन चल रहा था वहीं कुछ तेज तर्रार युवा उग्र आंदोलन के पक्ष में थे और कतिपय अवसरों पर वे पार्टी में भी आंदोलन को उग्र बनाने पर जोर देते थे,ऐसे कार्यकर्ताओं का नेतृत्व मा0 दिवाकर भट्ट जी करते थे,उनके तेवर हमेशा उग्र रहते थे तथा वे पहाड़विरोधी मानसिकता रखने वालों को कड़ा सबक सिखाने के पक्षधर थे,परंतु वे स्व0 बडोनी जी का बहुत सम्मान करते थे और उनके समझाने पर शांत हो जाते थे। श्री दिवाकर भट्ट के उग्र तेवरों के चलते ही स्व0 बडोनी जी ने श्री दिवाकर भट्ट जी को ” फील्ड मार्शल” का नाम दिया था जो आज भी प्रचलित है ।
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फील्ड मार्शल श्री दिवाकर भट्ट जी

उक्राँद का अलग राज्य का आंदोलन चल ही रहा था जिसे जनता का भरपूर समर्थन मिल रहा कि इस बीच वर्ष 1994 में केन्द्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिश पर 27% ओबीसी को आरक्षण दिये जाने के विरुद्ध देशव्यापी छात्रआंदोलन प्रारंभ हो गया,उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं रह सका बल्कि आरक्षण के विरुद्ध भड़के इस आंदोलन ने ही पृथक राज्य आंदोलन को चरम पर पहुंचाया जिसका नेतृत्व उक्राँद के तत्कालीन अध्यक्ष मा0 काशीसिंह ऐरी द्वारा किया गया। 2 अगस्त 1994 को स्व0 इन्द्रमणि बडोनी जी ने अलग राज्य की मांग को लेकर पौडी़ मे अपना अनशन प्रारंभ कर दिया उनके साध श्री रतनमणि भट्ट, श्री बिशनसिंह पंवार, श्री दौलतराम पोखरियाल, श्री प्रेमदत्त नौटियाल ‘कामिड’, श्री बासबानन्द पुरोहित, श्री पानसिंह रावत एवं श्री विष्षुदत्त बिंजोला सहित सात अन्य लोग भी अनशन पर बैॆठ गये ,इनमें से श्री विष्णुदत्त बिंजोला बीच में रहस्यमय परिस्थिति में लापता हो गये थे ,प्रशासन उनका पता नहीं लगा सका ।7अगस्त की रात में प्रशासन द्वारा जबरन अनशनकारियों को उठाया और आन्दोलनकारियों पर जबर्दस्त लाठीचार्ज किया, जिससे आक्रोशित होकर आम जनता भी आंदोलन में सम्मिलित हो गई तथा पूरे प्रदेश में धरना प्रदर्शन व चक्काजामों का सिलसिला प्रारंभ हो गया । यहीं से पृथक राज्य की लडा़ई ने जन-आंदोलन का रूप ले लिया । उधर नैनीताल में भी मा0 काशीसिंह ऐरी के नेतृत्व में पांच लोगों ने अनशन प्रारंभ कर दिया तथा 24 अगस्त को अनशन की स्थिति में ही श्री ऐरी जी ने लखनऊ जाकर विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 31 अगस्त 1994 को श्री दिवाकर भट्ट के नेतृत्व में विशाल रैली के माध्यम से संसद कूच किया गया जिसमें लगभग एक लाख प्रवासी उत्तराखंडियों ने शिरकत की, पुलिस द्वारा आंसूगैस का प्रयोग किया गया, लाठीचार्ज किया तथा लगभग 20000 लोगों ने गिरफ्तारी दी दिन्हें बाद में पुलिस ने रिहा कर दिया.

अपार जनसमर्थन और विभिन्न वर्गों और समूहों के इसमें सम्मिलित होने पर बाद मे यह आंदोलन उत्तराखंड क्रांतिदल के नेतृत्व में उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति में परिवर्तित हो गया जिसके निर्विवाद संरक्षक स्व0 इन्द्रमणि बडोनी जी थे,उनके संरक्षण में अहिंसक आदोलन चला बडी़ बड़ी रैलिय़ाँ निकली जिसमे कहीं पर हिंसक प्रदर्शन नहीं हुए,जिसके परिणाम स्वरूप बडोनी पूरे विश्व में पर्वतीय गांधी के नाम से जाने जाने लगे।

बाद मैं आंदोलन को कुचलने के लिए शासन प्रशासन द्वारा किये गए अत्याचार और नरसंहार के सभी साक्षी हैं जिसमे खटीमा गोलीकांड , मसूरी गोलीकांड ,मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहा काण्ड।,और उसके बाद देहरादून , कोटद्वार , नैनीताल मैं पुलिस की गोलियों से शहीद हुए लोग जिन पर आज तक जांच नहीं बैठी ना किसी पर कार्यवाही हुई है

उत्तराखंडियों द्वारा किये गए अनेकों संघर्षो , त्याग , तपस्या और बलिदान से हमें अपनी देवभूमि उत्तराखंड का राज्य मिला है , किसी ने थाली में सजा कर नहीं दिया।

1 – 1994 से उग्र हुए आंदोलन और मुजफ्फरनगर कांड के चलते मुलायमसिंह यादव के प्रति उत्तराखंडियों में नफरत का माहौल बन गया इस कारण मुलायमसिंह यादव ने तुरंत तत्कालीन उत्तराखंड के आठ जिलों (उत्तरकाशी, टिहरी, पौडी़, चमोली, देहरादून, अल्मोडा़, नैनीताल तथा पिथौरागढ़ ) को लेकर अलग उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव उत्तरप्रदेश की विधानसभा से पारित कराकर केंद्र को भेज दिया जो बाद में सुश्री मायावती के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में चार नये जिलों ( रुद्रप्रयाग, बागेश्वर,चंपावत एवं ऊधमसिंह नगर )का सृजन करने के बाद बारह जिले बन गये थे जिनमें हरिद्वार जिले को सम्मिलित नहीं किया गया था और न ही हरिद्वार की जनता की उत्तराखंड में सम्मिलित किये जाने की मांग थी, तब केन्द्र में नरसिम्हाराव की काँग्रेस की सरकार थी। उत्तराखंड क्रांति दल के नेता स्व0 इन्द्रमणि बडोनी जी, श्री काशीसिंह ऐरी, स्व0 विपिन त्रिपाठी, श्री त्रिवेंद्रसिंह पंवार व अन्य वरिष्ठ नेताओं ने विभिन्न अवसरों तत्कालीन प्रधानमंत्री ,गृहमंत्री पर पृथक उत्तराखंड राज्य की घोषणा किये जाने के लिये अनुरोॆध किया जाता रहा, इसके अतिरिक्त दिल्ली व उत्तराखंड में विशाल रैलियाँ 24 घंटे,36 घंटे,48 घंटे और 72 घंटे के बंद का आह्वान किया जिसमें जनता का भरपूर सहयोग व समर्थन मिला। उक्रांद का प्रतिनिधिमंडल समय समय पर पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 विश्वनाथप्रतापसिंह, मा0मधु लिमये, सरदार हरकिशन सिंह सुरजीत,आदि कई पूर्व केंद्रीय मंत्रियों से भी मिले जिन्होंने प्रधानमंत्री को उत्तराखंड को अबिलंब पृथक राज्य घोषित करने की सिफारिश की। फलस्वरूप तत्कालीन गृहराज्यमंत्री स्व0 राजेश पायलेट ने उत्तराखंड के जन संघटनों को वार्ता का निमंत्रण दिया। यहाँ पर काँग्रेस के एक उत्तराखंड के बडें नेता ने रातों रात 34 फर्जी संगठनों के नाम गिनाकर गृहराज्य मंत्री को भ्रमित कर प्रस्तावित वार्ता में न केवल व्यावधान डाला बल्कि सरकार के वार्ताक्रम पर भी पूर्णविराम लगा दिया।

2– उत्तरप्रदेश में मुलायमसिंह यादव के बाद भाजपा की सरकार बनी, इस सरकार ने भी उक्राँद की अगुआई मे चरम पर पहुँच चुके जनआंदोलन के चलते नये सिरे से उत्तराखंड पृथक राज्य का प्रस्ताव पारित केंद्र सरकार को भेजा लेकिन उसमे 26 संशोधन जोड़ कर सारी महत्वपूर्ण परसंपत्तियाों, जलविद्युत परियोजनाओं, मछली के तालाबों आदि पर उत्तरप्रदेश का अधिकार रखते हुये अधिकार विहीन राज्य की सिफारिश की गई, यहाँ तक कि हिंदुओं की आस्था के प्रतीक हर की पैडी़ पर पवित्र स्नान के लिये पानी भी उत्तरप्रदेश सरकार की अनुमति से मिलता है जबकि कुंभ और अर्द्धकुंभ जैसे महास्नानों पर संम्पूर्ण व्यवस्था उत्तराखंड सरकार को करनी होती है या केंद्रसरकार से सहायता की गुहार लगानी पड़ती है । ग्यातव्य है कि इन संशोधनों से नाराज होकर तत्कालीन समाजवादी पार्टी के विॆधायक होने के बावजूद श्री मुन्नासिंह चौहान ने अपनी पार्टी से त्यागपत्र दे दिया था, जबकि उत्तराखंड के 19 विधायकों में से 17 विधायक भाजपा के होते हुये एक ने भी उन संशोधनों का विरोध नहीं किया। टिहरी डैम से मिलने वाली रोयल्टी में राज्य को मिलने वाला हिस्सा उत्तराखंड को मिलना चाहिए लेकिन उस पर से भी उत्तरप्रदेश का अधिकार हटाया नहीं गया ।

3- नरसिम्हाराव जी के बाद मिलीजुली सरकार में श्री एच0डी0 देवगौडा़ देश के प्रधानमंत्री बने उन दिनों पृथक राज्य आंदोलन अपने चरम पर था, उन्होंने जनभावनाओं का सम्मान करते हुए 15 अगस्त 1996 को लालकिले की प्राचीर से उत्तराखंड को पृथक राज्य बनाने की घोषणा की जिसको अमल में लाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है।

4- बाद में भाजपा की सरकार केंद्र मे सत्तासीन हुई जिसके लिये स्वर्गीय श्री अटलबिहारी वाजपेई ने चौबीस से अधिक दलों को शामिल कर एनडीए का गठन कर सरकार बनाई । पर सर्वोच्च प्राथमिकता की पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा उत्तराखंड राज्य के औपचारिक गठन को जानबूझकर लटकाये रखा। परंतु फिर भी पूर्व की घोषणा का महत्वहीन बनाने के लिए और आगे आने वाले चुनावों को मध्यनजर रखते हुए नये सिरे से 15 अगस्त 2000 को लालकिले से पृथक उत्तराखंड राज्य की घोषणा की गई और 9 नवंबर 2000 को कौशिक समिति की सिफारिश तथा मुलायम सरकार द्वारा प्रेषित मूल प्रस्ताव में तीन नये और कुल मिलाकर 29 संशोधन कर एक कमजोर, अधिकार विहीन बिना राजधानी का राज्य “उत्तरांचल” नाम से अस्तित्व में आया, यहाँ पर राज्य के नामकरण में भी भाजपा ने जनमानस की भावनाओं को आहत किया। यही नहीं उत्तराखंडी जनमानस की मांग न होते हुए और महेन्द्रसिंह टिकैत के नेतृत्व में हरिद्वार वासियों के पुरजोर विरोध के बावजूद हरिद्वार को उत्तराखंड में मिलाकर राज्य की मूल अवधारणा को ही जटिल बना दिया। हालांकि बाद में उत्तराखंड में रहने के अनेकों लाभ महसूस करके हरिद्वार वासियों ने अपना विरोध समाप्त कर दिया और शेष उत्तराखंडियों ने भी इसे संविधानिक बाध्यता मानकर स्वीकार कर लिया । ( स्मरणीय है कि 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी श्री राजेन्द्र सिंह बाडी़ ने अपने घोषणापत्र मे कहा था कि यदि वे विजयी होंगे तो हरिद्वार को पुन: उत्तरप्रदेश में सम्मिलित करवायेंगे। उनके चुनाव जीतने से यह स्पष्ट हो गया कि अधिकतर हरिद्वार की जनता उत्तराखंड में रहने की इच्छुक नहीं थी।)

5 – इतना ही नहीं बाद में मुख्यमंत्री पद पर तीन पहाड़ के नेताओं में आपसी सहमति न बनने पर जब स्व0 नित्यानंद स्वामी को वैकल्पिक सरकार का मुख्यमंत्री बनाया गया तो उन तीनों नेताओं ने परोक्ष रूप से और उनके समर्थकों ने प्रत्यक्ष रूप से यह दुष्प्रचार कर कि हरियाणा वाले को मुख्यमंत्री बना दिया, पंजाब वाले को गवर्नर बना दिया, इस राज्य में पहाड़ और मैदान की इतनी गहरी खाई खोद दी जिसे पाटने में अभी लंबा समय लगेगा। जबकि यदि ठीक से व्याख्या की जाय तो पूरे भारत में उत्तराखंड से सुंदर व स्वावलंम्बी राज्य दूसरा नहीं है जहाँ मैदानी क्षेत्र मे कृषि से उत्पन्न हर प्रकार के अनाज ,दालें, सब्जियाँ उगा कर राज्य की सम्पूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता है वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि, बागवानी, फलोत्पादन, पर्यटक स्थल, धार्मिक स्थल, प्राकृतिक सौंदर्य, साहसिक पर्यटन, जलविद्युत, वनसंपदा, जडी़बूटी आदि क्षेत्रों में अपार संभावनायें हैं जिससे राज्य को देश के सबसे स्वावलंबी राज्य बनाया जा सकता है। ऊर्जा के क्षेत्र में यदि प्रदेश की सभी छोटी बडी़ नदियों के जल का वैग्यानिक सदुपयोग किया जाय तो राज्य पूरे देश को सस्ती विजली उपलब्ध कराने की क्षमता रखता है। परंतु इस राज्य में प्रत्येक योजना,परियोजना,व विकास के कार्य पहाड़ मैदान या कुमाऊँ गढ़वाल के चश्मे से देखे जाते हैं।

6 – राज्यों के बीच बंटवारे के नाम पर विभिन्न परिसंपत्तियाँ व कई प्रशासनिक अधिकार आज भी उत्तरप्रदेश व केंद्र सरकार के पास हैं , इसके विपरीत कर्जे मे हिस्सेदारी की गणना कर 2000 में 13000 करोड़ रुपये देनदारी के रूप में हम पर जबरन थोप दिया गया जो बढ़कर आज 50000 करोड़ से ऊपर पहुँच गया है।

7 – पहाड़ मैदान का झगड़े से आक्रोशित मुख्यमंत्री ने हमारा मूलनिवास समाप्त कर पहाड़वासियों के पर कतर दिये जिसे हम बड़े अभिमान से अपने नैसर्गिक अधिकार का सबूत मानते थे,यही नहीं स्थाई निवास के नाम पर तमाम गैर पहाडि़यों को वे सब मूल अधिकार दे दिये गये जो मूलनिवासियों के प्राप्त होते हैं और जिसका लाभ वे लोग ज्यादा उठा रहे हैं जो कभी भी राज्य के समर्थक नहीं थे।

8 – उन्होंने यहीं पर बस नहीं किया, पूर्व में ही निर्विवाद रूप से स्वीकार और कौशिक समिति द्वारा उपयुक्त पाई गई राज्य की राजधानी “गैरसैण” को विवादित करते हुए दीक्षित आयोग गठित कर राजधानी के मुद्दे को लटका दिया गया,जिस पर नौ वर्षों तक 65 लाख से भी अधिक व्यय करने के बावजूद आज तक दीक्षित आयोग की रपट सार्वजनिक नहीं की गई ।और आज बीस वर्ष तक भी राजधानी भाजपा कांग्रेस का चुनावी मुद्दा मात्र बनकर रह गया है ।

9- बाद में विकास पुरुष के नाम से जाने जाने वाले अनुभवी कांग्रेसी नेता, जिन्होंने कहा था कि “उत्तराखंड” मेरी लाश पर बनेगा, यहाँ के मुख्यमंत्री बने और रही सही कसर उन्होंने पूरी कर दी। पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के संसाधन जुटाने की बजाय उन्होंने भी समस्त उद्योग सिडकुल की स्थापना कर तराई क्षेत्रों में स्थापित कर दिये जबकि पर्वतीय क्षेत्र का भौगोलिक क्षेत्र इतना फैलाव लिए हुए है कि हजारों उद्योग व फैक्ट्रिय़ाँ बिना प्रदूषण फैलाये वहाँ स्थापित हो सकती है, हमारे पडो़सी राज्य हिमाचल प्रदेश में ऐसा ही है। और इन उद्योगों को लगाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त जमीन उपलब्ध थी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पहाडो़ से पलायन की गति और भी तीब्र हो गई। सबसे बडी़ बिडंबना यह थी पर्वतीय क्षेत्र के बीजेपी / कांग्रेस विधायकों ने भी मान लिया कि पहाडो़ में उद्योग नहीं लग सकते, उक्राँद के चार विॆधायकों ने भरपूर विरोध किया पर नक्कारखाने मे तूती की आवाज साबित हुई। क्योंकि सरकार के फैसले बहुमत से होते हैं और फिर इस मुद्दे पर कांग्रेस, भाजपा व बसपा एक थे, (70 +1 ) 71 मे 4 की कहाँ चलती। पर्वतीय क्षेत्र मे राजधानी न बनना और सिडकुल की स्थापना तराई क्षेत्र में होना ही पहाड़ से पलायन का मुख्य कारण हैं ।

10 – हमारे बहुत संघर्ष व जनदबाव के चलते प्रदेश की सरकारों ने गैरसैंण मे विधान सभा भवन व अन्य जरूरी भवनों के निर्माण की स्वीकृति दी भी और लगभग 70% निर्माण कार्य पूरे भी हो चुके हैं तथापि राजधानी की घोषणा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई । अब जबकि विधानसभा भवन बन चुका है तथा पर्याप्त मात्रा में आवासीय भवन भी बन कर तैयार हो चुके हैं, सरकार के पास राजधानी घोषित करने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं है, पर फिर भी ग्रीष्मकीलीन राजधानी घोषित कर भाजपा सरकार ने जनमानस की भावनाओं का एक बार फिर अपमान किया है,उल्लेखनीय है कि विधानसभा के नाम का प्रस्ताव राज्य की विधानसभा और कैबनेट में सिर्फ गैरसैंण के लिए पारित हुआ है। देहरादून में आज तक बिना किसी वैधानिक प्रस्ताव के अवैधानिक रूप से विधानसभा का संचालन किया जा रहा है ।

इसे बाजीगरी कहते हैं कि राज्य की मूल अवधारणा और जनभावना की अनदेखी कर और राज्य का भौगोलिक व सांस्कृतिक स्वरूप बिगाड़ कर यही नहीं राज्य में पहाड़- मैदान की खाई खोद कर, राजधानी को विवादित कर भी भाजपा अधिकांश लोगों में यह बात मनवाने में कामयाब हुई कि राज्य भाजपा की देन है, जबकि राज्य सही मायने में यहाँ के लोगों के संघर्षो का फल है किसी की मेहरबानी नहीं और भाजपा राज्य का स्वरूप व अवधारणा के साथ खिलवाड़ करने की दोषी है । वहीं काँग्रेस ने भी भाजपा की ही तरह पहाड़- मैदान की लडा़ई को महत्व दिया जिस कारण पहाड़ व पहाड़वासियों की हमेशा उपेक्षा कीॆ।

उक्रांद का संकल्प


उक्रांद ने फिर से संगठन बनाने का प्रयास प्रारंभ किया पर अधिकांश वे लोग जो उक्रांद की एक पुकार पर हजारों की संख्या में सड़कों पर उतर जाते थे पर आज महत्वाकांक्षा और स्वार्थ के चलते भाजपा-कांग्रेस का झंडा थामे नजर आने लगे हैं। संगठन न होना, झूठे वायदे न करना, छल-फरेब की राजनीति न करना व धनबल की कमी आदि कारणों से अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी ,ऊपर से जब मीडिया भी सही बात जनता के समक्ष न रख सके।

आज पहाड़ वहीँ खड़ा है जहां से पृथक राज्य की मांग आरम्भ हुई थी। उत्तराखंड राजनैतिक नासमझी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, बेरोजगारी, राजनीतिक-नौकरशाही-माफिया के गठजोड़, राजनीतिक अस्थिरता, संसाधनों की खुली लूट, अपराध आदि के चलते एक खतरनाक राह पर चल पड़ा है।

कभी देवभूमि के नाम से पहचाने जाने वाला उत्तराखंड ऐसे लोगों के हाथों में है जो टीवी चैनलों में इसे लूटने के लिए सौदे करते दिखाई दे रहे हैं। राजनीतिक अपसंस्कृति इतनी हावी हो गयी है कि कांग्रेस और भाजपा को सत्ता बचाने के लिए अपने ही विधायकों को खरीदना पड़ा। हमारे जनप्रतिनिधियों की जिस तरह बोली लगने लगी, प्रदेश के मुखिया से लेकर विधायकों तक के जिस तरह के वीडियो मीडिया में दिखाई-सुनाई दिये, उससे पूरा पहाड़ शर्मसार हुआ है। अब इससे आगे और रास्ता बचा ही नहीं है।

उक्रांद ने सन् 1979 में ऐसी ही स्तिथियों एवं परिस्थितियों में पृथक उत्तराखंड राज्य को अपना विकल्प माना था। इसके लिए संघर्ष भी किया था और सफलता के साथ उत्तराखंड राज्य की स्थापना में बहुत बड़ा योगदान और अभूतपूर्व बलिदान किया था।


अब हम उत्तराखंड के नवनिर्माण के लिए नए संकल्पों के साथ आ रहे हैं।


जब उक्रांद ने उत्तराखंड राज्य की कल्पना की थी, तब भी हमारे पास राज्य को आगे ले जाने वाली पूरी दृष्टि एवं योजनाएं थी। उसे हम कई बार अलग-अलग अवसरों पर जनता के बीच लाते रहे हैं। उत्तराखंड क्रान्ति दल ने राज्य आंदोलन के समय राज्य का जो प्रारूप रखा था, यदि सरकारों ने उसे मान लिया होता तो आज राज्य की स्थिति बहुत बेहतर होती।

हमारे जो मुख्य मुद्दे जिनपर हमने पृथक राज्य चाहा था और जिनके लिए हम संघर्ष कर लागू करवाना चाहते हैं वो इस प्रकार हैं

  • मूल निवास लागू करना

  • हिमाचल की तर्ज पर भू क़ानून

  • नौकरियों में मूल निवासी के लिए आरक्षथ के